प्रेमचन्द की कहानी सद्गति का सारांश व समीक्षा | Summary and review of Premchand's story Sadgati
सद्गति कहानी से उत्पन्न हुए सवाल - Questions arising from the story of Sadgati
बेटी कि शादी के लिए पिता सारी ज़िन्दगी मेहनत करता है या तो सारी ज़िन्दगी की कमाई शादी में लगा देता है या फिर शादी के बाद उम्र भर के लिए कर्ज़े में डूब जाता है। कभी यह नहीं सुना कि शादी के लिए पिता ने इतनी मेहनत की हो कि शादी से पूर्व ही उसकी मृत्यु हो जाए।
माना जाता है कि जातिवाद में किसी एक जाति को सर्वश्रेष्ट कहा जाता है और किसी जाति को सबसे निम्न समझा जाता है। उच्च जाति का व्यक्ति निम्न जाति के व्यक्ति को छुना पसंद नहीं करता है। ऐसे में सवाल यह उठता है कि जब उच्च जाति का व्यक्ति निम्न जाति के व्यक्ति को छुना पसंद ही नहीं करता तो उसी निम्न जाति के व्यक्ति द्वारा छुई वस्तुओं को कैसे छु सकता है? छुई वस्तुओं का इस्तेमाल कैसे कर सकता है?
कहते हैं कि भूखें को खाना खिलाना पुण्य का काम है लेकिन अपने ही घर के सामने कोई व्यक्ति यदि भूख से अपनी जान गवा दे तो इस कार्य को किस श्रेणी में रखा जायेगा?
वर्तमान में इन सारे विषयों पर स्थिति कैसी है यह हमारे आसपास के महौल और समाचार पत्रों के माध्यम से पता चल ही जाता है। लेकिन आज से लगभग सौ वर्ष पहले स्थिति कैसी थी इसकी झलक प्रेमचन्द जी द्वारा लिखी कहानी सद्गति में देखने को मिलता है परिणाम स्वरूप यह सवाल सद्गति कहानी पढ़कर ही उत्पन्न हुए हैं।
सद्गति कहानी पढ़कर सौ साल पहले कि जातिवाद स्थिति की झलक देखने को मिलती है। यह कहनी पढ़कर स्पष्ट रूप से यह तुलना कर सकते हैं कि स्वतंत्रता के बाद हमारे समाज में कितना बदलाव आया है या वर्तमान में और कितना बदलाव करने की आवश्यकता है।
सद्गति कहानी का सरांश | Summary of Sadgati Story
प्रेमचंद की कहानी सद्गति में दुखी जो एक दलित व कहनी का नायक है। वह अपने घर में पूजा के लिए गांव के ब्राहम्ण को बुलाने जाता है। ब्राहम्ण पूजा कराने से पहले दुखी से अपने वह सारे काम करने को कहता है जो अधिक समय से रूके हुये थे। जैसे – झाडू लगाना, द्वार लीपना, आदि। यह सारे काम समान्य है लेकिन सबसे दुखद काम एक ऐसी लकड़ी को काटने के लिए कहना, जो किसी के लिए सरल नहीं है। इसका अर्थ यह नहीं कि पूजा पाठ कराने कि दक्षिणा यही है। यह कार्य तो साथ चलने की अप्रत्यक्ष शर्त है।
जिस लकड़ी को काटने का काम दुखी को मिला है उस लकड़ी में एक गांठ है, जिसे समान्य कुल्हाड़ी से काटना मुश्किल है। लगातार कुल्हाड़ी मारने पर भी लकड़ी पर एक निशान तक नहीं आता लेकिन दुखी यह काम फिर भी यह सोच कर करता है कि उसकी बेटी की सगाई (शादी) है। यादि ब्रह्मण ने आने से मना कर दिया तो क्या होगा? क्यूँकि घर में बहुत काम हैं वह सोचता है बाक़ि काम निपटा ले और ब्रह्मण से कह दे कि लकड़ी कल आकर काट देगा।
खाली पेट काम करते-करते झौवा सर पर लिए-लिए ही दुखी की आँख लग जाती है। शाम के चार बज गए हैं, जब पंडितजी घर से बाहर निकलें तो देखा दुखी सर पर झौवा रखें सो रहा है। पंडित दुखी पर चिल्लाकर कहते हैं – “अरे, दुखिया तू सो रहा है? लकड़ी तो अभी ज्यों की त्यों पड़ी हुई है। इतनी देर तू करता क्या रहा? मुट्ठी भर भूसा ढोने में संझा कर दी। उस पर सो रहा है। उठा ले कुल्हाड़ी और फाड़ डाल, तुझसे ज़रा सी लकड़ी नहीं फटती। फिर साइत भी वैसी ही निकलेगी, मुझे दोष मत देना”।
दुखी ने कल आकर लकड़ी काटने वाली बात कहने का जो विचार किया था वह विचार ही रह गया। लकड़ी के पास आकर पंडित जोर देने लगे की लकड़ी पर जोर से मार अभी फट जायेगी। अचानक दुखी के अन्दर न जाने कैसी शक्ति आ गई थकान, भूख, कमज़ोरी मानो सब भाग गई। पूरी ऊर्जा के साथ लकड़ी पर आधे घंटे तक प्रहार करता रहा परिणाम स्वरूप लकड़ी बीच से फट गई और दुखी के हाथ से कुल्हाड़ी छूटकर गिर पड़ी। खुद दुखी भी चक्कर खाकर गिर गया। पंडित ने पुकारा और कहा लकड़ियों के और टुकड़े कर दे लेकिन दुखी उठा ही नहीं। पंडित भीतर गये और तैयार होकर बाहर आये। दुखी को पुकारा चलो तुम्हारे घर ही चल रहा हूँ। दुखी नहीं उठा।
पंडितजी समझ गये दुखी ने प्राण त्याग दिये हैं। पंडितजी ने जब यह बात अपनी पत्नी से बताई तो पत्नी ने कहा चमरानै में कहला भेजो मुर्दा उठा ले जाएँ।
खबर तो पहुंचा दी गई लेकिन पुलिस के डर से कोई मुर्दा उठाने नहीं आया। दुखी की पत्नी और बेटी दोनों रोती हुई दुखी के पास आईं आधी रात तक रोती रहीं लोकिन कोई मदद को नहीं आया।
सुबह हो गई कोई चमार लाश उठाने नहीं आया परिणाम स्वरूप सारी चमारिन भी रो-पीटकर चली गईं। दुर्गंध फेलने लगी, पंडितजी ने रस्सी का फंदा दुखी के पैर में डाला और घसीट कर गाँव के बाहर खेत में छोड़ दिया जहां दुखी की लाश गीदड़ और गिद्ध, कुत्ते कौए नोचते रहे।
वापस आकर पंडितजी ने स्नान, दुर्गापाठ, व गंगाजल छिड़क कर खुद को पवित्र किया।
सद्गति कहानी की समीक्षा – Review of Story Sadgati
प्रेमचन्द जी ने इस कहानी के माध्यम से जातिवाद पर प्रहार किया है। जहाँ उच्च श्रेणी की जाति वालो द्वारा निचली जाति वालो का शोषण किया जाता है। ईश्वर ने सबको एक समान बनाया है। ऊंच-नीच तो इंसान के द्वारा किया गया वर्गीकरण है।
इस कहानी के माध्यम के पता चलता है कि इंसान के भेदभाव भी कितने औपचारिक हैं एक तरफ पंडितजी दुखी के मृत्यु के बाद भी उसे इसलिये नहीं छुना चाहते क्योंकि वह अपवित्र हो जायेंगे यदि किसी चमार को स्पर्श किया तो दुसरी तरफ उसी चमार द्वार फाड़ी लकड़ी से घर की रसोई में भोजन तैयार किया जायेगा। तब फाड़ी गई लकड़ी छुने वाली स्त्री, रसोई, या खाना कुछ भी अपवित्र नहीं होगा?
जब दुखी चिलम पीने के लिए आग मांगने घर के अन्दर चला आता है तो पंडिताइन उस पर इतना क्रोधित हो जाती है कि आग दुखी के सर पर ही फेंक देती है। इसका भी दुखी बुरा नहीं मानता है और सोचता है कि मैं एक पंडित के घर चला आया इसकी सज़ा ईश्वर ने अभी इतनी जल्दी दे दी।
कहते हैं कि भूखें को खाना खिलाना पुण्य का काम है लेकिन इस कहानी में दुखी जो घर से जलपान भी कर के नहीं आया था। सारा दिन दुखी से मुफ्त में काम करवाने के बाद भी उसे दो रोटी देना भीं पंडित व पंडिताइन ने ज़रूरी नहीं समझा। भूख और अत्यधिक मेहनत करने के परिणाम स्वरूप दुखी की मृत्यु हो गई।
निष्कर्ष - Conclusion on Story Sadgati
यह स्पष्ट है कि सहित्य समाज का दर्पण है। परिणाम स्वरूप सहित्य का विषय व स्थिति समाज से ही ली जाती है। जिस तरह दर्पण में दिखने वाले व्यक्ति का प्रतिबिंब सजा होता है। उसी तरह समाज के विषय को साहित्यिक रूप देते समय सहित्यकार द्वारा सजा दिया जाता है।
यह कहानी स्वतंत्रता से पूर्व लिखी गई थी तब स्थिति लगभग इस प्रकार की रही होगी। वर्तमान में हमारे समाज में कितना सुधार आ चुका है, और आज भी कितने परिवर्तन की आवश्यकता है। यह आप अपने परिवेश को देखकर स्वयं विचार कीजिए।
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