ठाकूर का कुआँ कहानी का सारांश व समीक्षा

 

ठाकूर का कुआँ कहानी का सारांश व समीक्षा | Summary and review of story Thakur ka kuan by premchand

प्राकृतिक संसाधन पर किसका अधिकार है? 


यह तो सब जानते हैं कि प्राकृतिक संसाधन का निर्माण किसी इंसान ने नहीं किया है बल्कि यह प्राकृतिक रूप से पहले से मौजूद है जैसे इंसानों की मौजूदगी ईश्वर की रचना मानी जाती है वैसे ही प्राकृतिक संसाधन भी ईश्वर की रचना मानी जाती है। जल जो प्राकृति का हिस्सा है इसका निर्माण भी किसी इंसान ने नहीं किया है। इंसान का जीवन व जीवन व्यतीत करने के लिये आवश्यक संसाधन यह सब ईश्वर की देन है, ऐसा माना जाता है। प्रश्न यह बनता है कि जिसका निर्माण इंसान के बस में नहीं है उसके उपयोग से वह किसी अन्य को कैसे रोक सकता है।   

मान लेते हैं कि जिसके द्वारा रोका जा रहा है वह उच्च जाति का व्यक्ति है जिसे रोका जा रहा है वह नीची जाति का व्यक्ति है, तब भी एक बड़ा प्रश्न यह उठता है कि ऊंच-नीच, छोटा-बड़ा यह अन्तर तो ईश्वर ने बनाया ही नहीं यदि बनाया होता तो जन्म से ही शारीरिक बनावट में कुछ अन्तर अवश्य होता जैसे पक्षी और जानवर में होता है। (पक्षी और जानवर में अन्तर होने के बाद भी जल पर दोनों का अधिकार है) परिणाम स्वरूप इंसान जिनमें ईश्वर ने कोई अन्तर नहीं रखा चाहे वह किसी भी धर्म, जाति या समुदाय का हो फिर किसी इंसान को क्या हक है कि वह भेद पैदा करके किसी को किसी से कम समझे या घोषित करे।   

हम बात कर रहें हैं “प्रेमचन्द” की कहानी “ठाकूर का कूआ” की जिसमें दर्शाया गया है कि कुएँ से पानी निकालने का अधिकार दलितों को नहीं है। 


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ठाकूर का कुआँ कहानी का सारांश-


गंगी कहानी की नायिका है, उसके पाति जोखू का गला सूख रहा था जो बीमार है। गंगी जिस कुएँ से रोज पानी लाती है उसी कुएँ से आज भी पानी लाई थी। रोज तो पानी साफ रहता था लेकिन आज पानी में बदबू थी। परिणाम स्वरूप गंगी ने अनुमान लगाया कि शायद कुएँ में कोई जानवर गिर कर मर गया है। 

जोखू की तबियत खराब होने के कारण उसे पता था कि यह बदबू वाला पानी पीकर तबीयत और ज्यादा खराब हो जायेगी। गंगी ने ठाकूर के कुएँ से पानी लाने का निर्णय किया जिसका विरोध करते हुएँ जोखू ने गंगी से मना कर दिया। जोखू ने कहा “हाथ-पांव तुडवा आयेगी और कुछ न होगा” गंगी ने फिर भी रात को नौ बजे हिम्मत करके ठाकूर के कुएँ पर पानी लेने चली गई। 

कुएँ पर अन्य स्त्रियाँ पानी भरने आई थी जिसकी आहट से गंगी एक पेड़ के नीचे छिप गई। स्त्रियों के जाते ही गंगी ने जल्दी से मटका कुएँ में डाला और पानी भर कर खिंच लिया जैसे मटका कुएँ के मुहँ तक आ पहुँचा वैसे ही ठाकूर का दरवाज़ा खुल गया। भय के कारण गंगी के हाथ से मटका छूट गया है कुएँ में गिर गया। “कौन है कौन है”  कहते हुए ठाकूर कुएँ के पास आया। गंगी वहाँ से भाग आई, घर आकर देखा तो जोखू वही (मैला-गंदा) बदबू वाला पानी पी रहा था।    


ठाकूर का कुआँ कहानी की समीक्षा


प्रेमचंन्द आधुनिक युग के महत्वपूर्ण लेखक हैं जिन्होंने दलित समस्या पर अपनी कलम चलाई है। 

गंगी एक दलित है जिसके मोहल्ले में दलितों का कोई कुआँ नहीं है जिसके कारण उसे दूर से पानी भर कर लाना पड़ता है। इस तथ्य से यह पता चलता है कि दलितों की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है जिस कारण वह अपने मोहल्ले में कुआँ नहीं है। 

जब गंगी ठाकूर के कुएँ से पानी लाने की बात कहती है तो जोखू कहता है “हाथ-पांव तुडवा आएगी और कुछ न होगा। बैठ चुपके से। ब्रहम-देवता आशीर्वाद देंगे, ठाकूर लाठी मारेगें, साहूजी एक के पाँच लेंगे। गरीबों का दर्द कौन समझता है। हम तो मर भी जाते हैं तो कोई दुआर पर झाँकने नहीं आता, कंधा देना तो बड़ी बात है। ऐसे लोग कुएँ से पानी भरने देंगे?” इस बात से पता चलता है कि ठाकूरों को दलितों के सुख-दुख से कोई मतलब नहीं है संभव है कि पानी भरते देख लेते तो वह गंगी का अहित भी कर सकते हैं।

गंगी कमजोर है, लेकिन नसमझ नहीं है। सही गलत में फर्क समझती है। जब गंगी पानी भरने कुएँ पर जाती है तो मन ही मन सोचती है कि - “हम क्यो नीच हैं और ये क्यो ऊंच हैं? इसलिए कि ये लोग गले में तागा डाल लेते हैं? यहाँ तो जितने है, एक से एक छँटे हैं। चोरी ये करें, जाल-फरेब ये करें, झूठे मुकदमे ये करें। अभी इस ठाकूर ने तो उस दिन बेचारे गड़रिये की भेड़ चुरा ली थी और बाद में मारकर खा गया। इन्हीं पंडित के घर में तो बारहों मास जुआ होता है। यही साहू जी तो घी में तेल मीलाकर बेचते हैं। काम करा लेते हैं, मजूरी देते नानी मरती है। किस-किस बात में हमसे ऊँचे हैं, हम गली-गली चिल्लाते नहीं कि हम उँचे हैं, हम उँचे हैं। कभी गाँव में आ जाती हूँ, तो रस-भरी आँख से देखने लगते हैं। जैसे सबकी छाती पर साँप लोटने लगता है, परंतु घमंड यह कि हम उँचे हैं” 

गंगी की बातों से पता चलता है कि ठाकूरों द्वारा दलितों का अत्यधिक शोषण किया जा रहा है। ठाकूर अनुचित कार्य करके भी साफ बच जाते हैं जैसे - चोरी करना, दिलितों की पिटाई करना, मजदूरी ना देना, (गाँव में आ जाती हूँ तो छाती पर साँप लोटने लगता है) इस वाक्य से पता चलता है कि दलित स्त्री सुरक्षित नहीं है, लेकिन छुआछूत के नाम पर दलितों का शोषण किया जा रहा है। 


निष्कर्ष 

यह कहानी प्रेमचन्द जी द्वारा लिखी गई है इसका अर्थ है कि स्वतत्रंता से पूर्व लिखी गई है। स्पष्ट है कि सहित्य समाज का दर्पण है। इसका अर्थ यह है कि दलितों की स्थिति उस समय समाज में लगभग ऐसी ही रही होगी। 

वर्तमान में बदलाव आया है और यह बदलाव कितना है यह आप आपने आस-पास के परिवेश को देख कर स्वंय तय कीजिए। यदि आज भी इस स्थिति में विचार या सुधार की आवश्यकता है तो अपना सहयोग देकर छुआछूत जैसी बीमारी का इलाज कीजिए।  


Sunaina

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